नया नया आया बुढापा
इज़्ज़त पा रहा बुढापा
मान सम्मान बहुत मिलरहा है
मुझ को मज़ा दे रहा बुढापा
कुछ कुछ पुराना हुआ बुढापा
निराशा से फिर घिरा बुढापा
कटते नही अब रात और दिन
मुश्किलें की बरात लाया बुढापा
फिर ज़र ज़र होने लगा बुढापा
असहाय सा रहने लगा बुढापा
दर्द में चलना फिरना दुश्वार हुआ
दूसरों पर आश्रित लाचार बुढापा
हुआ कुछ और पुराना बुढापा
ताने गाली हज़म करता बुढापा
उपेक्षा , अपमान के घुट पीता है
पुरानी यादों मे गोते खाता बुढापा
काटना मुश्किल हो गया अब बुढापा
बे स्वाद बे इलाज वाला ये बुढापा
दाँतो ने साथ छोड़ा तो नजर भी धुँधलाई ,
किसके सहारे और कैसे कटे बुढापा
ईश्वर को अब याद करता हुआ बुढापा
गुनाहों की माँफी माँगता हुआ बुढापा
मोह माया के बंधन अब सब छूट गये
ईश्वर में आसक्ति जीवन से मुक्ती चाहता है बुढापा
अलका पाण्डेय - अग्निशिखा
9920899214
आया बुढापा
आया बुढ़ापा
सभी अनुभव बटोरकर
यादें लाया बिताये दिन के
हर उस पर के साथ जीना है
जो बिताये थे कभी खुशी ग़म के
आया बुढ़ापा पेंशन के
अब आया बुढ़ापा का स्वागत मन से करना है
वहीं ज़िन्दगी हंस के जीना है
जो संग जवानी में बिताए थे
हर ग़म हंस के गुजारना है
अपने दोस्तों यारों संग बुढापे के दिन बिताना है
जो दिन जिन्दगी में बिताए थे
फिर से उसे जीना है
ज़िन्दगी को जीना ऐसे सरल बनाना है।
ये ज़ीवन की वास्तविकता है
इसे सहज स्वीकार करना है
अंजली तिवारी मिश्रा जगदलपुर छत्तीसगढ़।
आया बुढ़ापा उनसे पूछो जिनका वह आया है
किस तरह से उन पर परेशानियों का दौर आया है
हां तेरे साथ नहीं देती नाक कान में हो जाती है
परेशानी और चाल भी कुछ ऐसी ही डगमगा जाती है जिंदगानी
झुर्रियों भरा चेहरा धंसी हुई आंखें कहती है कहानी
अब ना तुम अपने आप को समझो तुम्हारी जिंदगी में आने वाला है अंधियारा
बाल भी हो गए हैं बगुले की तरह चमकती हुई बत्तीसी हो जाती हैं गायब
मसूड़े बचे हैं गाल पोपले हो जाते हैं चेहरे की आकृति बिगड़ जाती है व् बुढ़ापा जिनका आता है उनसे पूछो उनके दिल पर क्या गुजरती है
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
कुमारी चंदा देवी स्वर्णकार
आया बुढ़ापा
👵👵👵👵👵👵👵👵
बचपन और जवानी से ऊपर जीवन जब जाए
ले अनुभव की खान महा मेहमान बुढ़ापा आए।
👵
आंख कान कमजोर सिकुड़ती चर्म मास कम जाए
डगमग डगमग चाल श्वेत हों बाल कमर झुक जाए
👵
बचपन आता लौट चटोरी होने लगती जिह्वा।
चंद्र वदन मृग लोचनियां भी कहने लगती बाबा।
👵
खुद ही खुद को कहने लगते बात बात पर बूढ़ा
बाथरूम तक जाने तक को लाठी करते ढूंढा।
👵
मिलने लगता मात पिता के साथ किया जो तुमने
बच्चे करते वही कि जो संस्कार दिए थे तुमने।
👵
अच्छों को अच्छा मिलता है मिलता बुरा बुरों को।
असुरों को बस कष्ट मिले, मिलता आनंद सुरों को।
💎
आएगा एक रोज बुढ़ापा ध्यान स्वास्थ्य का रखना।
चलता फिरता तन रखना, मन को जवान भी रखना।
👵
अगर करोगे ऐसा तो आनंद उठा पाओगे
भूल जरा भी कर दी तो निश्चय ही पछताओगे।
👵👵👵👵👵👵👵👵
© डा कुंवर वीर सिंह मार्तण्ड, कोलकाता
संपादक : साहित्य त्रिवेणी
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
बुढ़ापा आया आया रे!!
जब दर्पण में खुद को खुद पहचान न पाया रे।
तब मन ने ये कहा बुढ़ापा आया आया रे।
जहां केश थे भमरे जैसे काले घुंघराले
वहां श्वेत हो गए कि जैसे बगुले हों पाले
जहां चमकती बत्तीसी थी चपला सी चम चम
वहां मसूड़े सिर्फ बचें है, हुए पोपले हम।
भीगे हुए चनों को भी जब चबा न पाया रे।
तब मन ने यह कहा बुढ़ापा आया आया रे।
अंधकार में भी जो आंखें देखा करती थी
अब दिन में भी उनमें अंधियारा ही रहता है
भरा झुर्रियों से अब चेहरा आंखें धंसी हुई
कान हुए कमजोर नाक से पानी बहता है
पास कान के चिल्लाने पर ना सुन पाया रे।
तब मन ने यह कहा बुढ़ापा आया आया रे।
मांसलता अब कहां सिर्फ हड्डी ही दीख रही।
सिकुड़ गई सब चमड़ी दमड़ी कीमत नहीं रही।
कदम लड़खड़ाते चलने में लाठी ही साथी
बकरी सा रह गया बदन जो पहले था हाथी।
उठने और बैठने में जब चक्कर आया रे।
तब मन ने यह कहा बुढ़ापा आया आया रे।
© कुंवर वीर सिंह मार्तंड, कोलकाता
मुख्य अतिथि का वक्तव्य
सम्माननीय मंच, आदरणीय मंच संचालिका अलका पांडेय जी, समारोह के अध्यक्ष श्री राम राय जी, विशिष्ठ अतिथि आशा जाकड़ जी, सुधा चौहान जी, रामू भैया जी, नागेंद्र दुबे जी, जनार्दन सिंह जी एवं समस्त प्रतीभागी गण सभी को सादर वंदन अभिनंदन।
बहुत प्रसन्नता की बात है कि हर महीने की तरह इस बार भी आप दिए गए विषय पर अपनी कविताएं प्रस्तुत करेंगे। आशा है सभी लोग अपना श्रेष्ठतम सृजन उपस्थित करेंगे। साथ साथ अपने पिछले दिनों किए गए सृजन के आधार पर सम्मान भी प्राप्त करेंगे। हमारी सबके साथ शुभ कामनाएं। साथ ही साथ उन विद्वानों को हार्दिक बधाई जो सप्ताह भर अपना अमूल्य समय देकर सबकी रचनाओं की सटीक और सार्थक समीक्षा करते हैं
अंत में ईश्वर से प्रार्थना है कि यह मंच निरंतर इसी प्रकार अग्रसर होता रहे। और हम सब इसके नक्शे कदम पर चलते रहें । और और अपनी रचनाओं में आग भरते रहें।
डा. कुंवर वीर सिंह मार्तण्ड, कोलकाता
आया बुढ़ापा
जब आया बुढ़ापा, दिल नहीं मानता,
और गुनगुनाता अभी तो मैं जवान हूंँ।
फिर सोचता बुढ़ापे से इतना मैं डरता क्यों हूँ
अशक्त हो जाने से ,पैसे पास ना रहने से
या हसीनाओं के दिल से उतर जाने से।
पावर अपना खत्म होने का डर दिखाता
या बालों में चांदी चमकने का भय सताता।
घुटने,कमर का दर्द मुझे अपने पास बुलाता।
क्या चीज है ये बुढ़ापा जो मुझे इतना डराता।
हम मन को समझा लें थोड़ी तैयारी कर लें।
तो हम बुढ़ापे से डरें नहीं खुशियां मना लें।
पैसा बुढ़ापे में सबसे बड़ा सहारा होता है,
और कोई साथ दे ना दे,ये हमारे साथ होता है
प्यार से सबसे बोलो,किसी को टोको मत,
अपना काम आप करो,कोई उम्मीद रखो मत
जिम्मेदारी खत्म करो, बुढ़ापे को एंज्वाय करो
यही नारा अपना ,खुश रहो मस्त रहो।
नीरजा ठाकुर नीर
पलावा डोम्बिवली
महाराष्ट्र
बुढ़ापा
जब बाल सफेद दिखते हैं
तो मालूम पड़ जाता है कि
अब बुढ़ापा दस्तक दे रहा है
उम्र का तकाजा कह रहा है
बाल धूप में सफेद नहीं होते
यही तो बता रहा है अनुभव
समय आगया कर राम भजन
बुढ़ापा दे रहा अब निमन्त्रण
चाहे कोई कहीं भी आए -जाए
कितनी ऊंचाई पर पहुंच जाए
पर बुढ़ापा तो अपने समय पर
आकर.अपना दर्शन दे देता है।
चाह कर भी कोई राजा -अमीर
इस बुढ़ापे को रोक नहीं सकता
सौन्दर्य प्रसाधन भी बुढ़ापे का
आगमन कभी रोक नहीं सकता।
बुढ़ापा चेहरे पर झुर्रियाँ ला देता है।
हाथ पैरों में थकान ला ही देता है।
दौड़ने भागने से लाचार कर देता है
बुढ़ापा सच में तू सबको हरा देता है
कोई कितना भी धनवान क्यों ना हो
लेकिन तू अपना रंग जमा ही देता है
बुढ़ापे को देखकर ही गौतम बुद्ध ने
दुखी हो अपना राज परिवार छोड़ा।
ज्ञान मार्ग जानने और धर्मोपदेश में
अपना सम्पूर्ण जीवन बिता दिया ।
बुद्ध बनकर बौद्ध धर्म स्थापना की,
संसार को माया मोह से मुक्त किया।
मनुष्य भी पूरे जीवन भर भागता है
अपनी जिम्मेदारियाँ.वहन करता है
आखिर जब बुढ़ापा.दस्तक देता है ,
तब विश्राम की घंटियाँ.बजाता है।
ये बुढ़ापा ही वरिष्ठ नागरिक का
सेवा निवृत्त कर सम्मान दिलाता
जीवन की दौड़ में निज अनुभव से
युवाओं को मार्गदर्शन भी कराता।
अरे बुढ़ापा अगर तू ना आए तो
कोई भी जरा आराम न फरमाए
बुढ़ापा तेरा शत- शतअभिनंदन।
सभी जन करते बुजुर्गों का वन्दन।
आशा जाकड़
9754969496
उद्बोधन
अग्निशिखा मंच पर उपस्थित अग्नि शिखा मंच की अध्यक्ष डॉ अलका पांडे जी ,समारोह अध्यक्ष राम राय जी मुख्य अतिथि कुंवर मार्तंड जी ,विशिष्ट अतिथि डॉ सुधा चौहान जी , रामू भैया, नागेंद्र दुबे जी ,जनार्दन शर्मा जी एवं नीरजा ठाकुर जी आप सभी को आशा जाकड़. का सावन की रिमझिम फुहार में इन्द्रधनुषी वंदन - अभिनंदन ।
सावन के रिमझिम मौसम में अलकाजी का अपने मैके
इन्दौर में स्वागत है। अलका जी अग्नि शिखा मंच पर हमेशा नए नए विषय देकर मंच को सुशोभित करती हैं। अलका पांडे जी ने आज भी एक नया विषय दिया है ""बुढ़ापा ""जो वास्तव में बड़ा ही रोमांचक विषय है विशेषकर हम लोगों के लिए क्योंकि हम जिंदगी के इस पड़ाव पर पहुंच चुके हैं ।बुढ़ापा जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है क्योंकि 60 साल तक हम लोग काम में बड़े व्यस्त रहते हैं और 60 साल के बाद ही सेवा से निवृत्त होते हैं तब तक सही मायने में बुढ़ापे के दर्शन होने लगते हैं ।इस बुढ़ापे का हमें पूरी तरह से सदुपयोग करना चाहिए ।राम भजन में अपना ध्यान लगाएं ।युवा पीढ़ी को अपने अनुभवों के द्वारा मार्गदर्शन दें जो अध्यापक हैं वह बच्चों को पढ़ाएं और बच्चों को योगा करने की, अच्छी किताबें पढ़ने को प्रेरित करें
बुढ़ापे में स्वयं भी खूब व्यस्त रहें क्योंकि खाली दिमाग शैतान का घर होता है और अपने अंदर कभी भी निराशा नहीं आने दे दूसरों को सकारात्मक सलाह दें अपनी लेखनी से या अपने कामों से ऐसे काम करें कि दूसरों को प्रेरणा मिले।आशा का दीप जलाएं कि आसपास का वातावरण सकारात्मक रोशनी से जगमगा उठे और सभी में नई उमंग व ऊर्जा का संचार हो।
इस प्रकार बुढ़ापा सचमुच सुखदाई होगा व प्रेरणादाई होगा जिससे नई ख़ुशी का एहसास होगा ।सभी रचनाकारों को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। सभी की रचनाएं एक से बढ़कर एक है ।सभी को पुनः वंदन अभिनंदन अलका जी आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएं आपका मंच खूब आगे बढ़ता रहे ।नए नए विषयों से मंच सुशोभित होता रहे । पुनः शुभकामनाएं
आपकी
आशा जाकड़
अग्नि शिखा मंच
कवि**** सम्मेलन
बिषय*****बुढापा
********************
अब ज़िन्दगी से चुराया है कुछ पल खुद के लिए।
चलो कुछ करते है अपने आने वाले उस कल के लिए।
जिस कल में बहुत कुछ कर जाना है।
बचपन बिता जवानी बिती आ गया अब चौथा पन है।
अब कुछ औरो के लिए भी करे आखीर मीट्टी मे मिल जाना है।
चौथे पन मे गृह जंजाल छोड
कान्हा से दिल लगाना है।
भुखे को भोजन प्यासे को पानी पिलाना है।
किसी के दुःख सहला कर जीने की उम्मीद जगाना है।
अब थोडी सी.बची जीन्दगी मे बुढ़ापे को बनाना है।
अब अपने लिए एक कल बनना है।
जिस कल में खुद से ही अपनी पहचान बनाना है।
अब अपनी जीन्दगी के बारे मे बिचारना है।
फुरसत में करेंगे तुझसे हिसाब ऐ ज़िंदगी।
अभी तो उलझे है खुद को सुलझाने में।
कभी इसका दिल रखा कभी उसका दिल रखा ।
इसी कश्मकश में भूल गये खुद का दिल कहाँ रखा।
फिसलती ही चली गयी एक पल भी रुकी नही।
बुढ़ापा आगया तब जाकर सोचा बित गई जीन्दगी।
अब जा के महसूस हुआ रेत के जैसी है जिंदगी।
कौन है जिसके पास कमी नही।
इतने बड़े आसमान के पास भी तो जमीन नही।
चलो चले चल कर सुकून ही ढूंढ लाये।
ख्वाहिशें तो ख़त्म होने से रही।
जाडे़ के दिन जैसी ही बित गई जीन्दगी
स्वरचित बृजकिशोरी त्रिपाठी
गोरखपुर ,यू,पी
आया बुढ़ापा
लोग कहते हैं आ गया बुढ़ापा
पर हम कहते हैं बुढ़ापा नहीं हम सीनियर हैं
तजुर्बे के खजाने से भरपूर हैं
उम्र गुजरती गई
तजुर्बे की बैंक बैलेंस बढ़ती गई
बुढ़ापा को समझना ना लाचारी
यह नहीं है कोई बीमारी
अब वक्त आया है यारी
अब तो फुर्सत के पल मिले
जीने के अंदाज मिले
मस्ती गाने के आगाज मिले
सिर्फ 60 के बाद उम्र की गिनती
कर लो यारों उल्टी
थोड़ा हंसो और हंसाओ
रूप रंग निखार मस्त अंदाज
जीवन जी लो प्यारो
जीवन की यही 4 दिन है लाजवाब
सुख-दुख धूप छांव
से गुजर गई है जिंदगी
दुख को भुला दिया सुख को याद किया
जीवन को लाजवाब बना दिया
कुमकुम वेद सेन
गई जवानी आया बुढापा
**********************
बचपन बीता गया
फिर आई मस्त जवानी
अब ढल गई जवानी
ये मैं समझ न पाया
उम्र की उस दहलीज पर आ गया हूं
अब मैं चाहता हूं
जब कोई मुझे संभाले बच्चों की तरह
पर आज किसी के पास मेरे लिए वक्त नहीं
मैं जो लाचार हो गया हूं
ताउम्र गुजिया दी ज़िन्दगी
अपने जीवन को संवारने में
आज मेरा बुढ़ापा औलाद उठिए नहीं सकते
अब मैं किसी किम का नहीं
अपनी कदमों से चला जाता नहीं
ज़िन्दगी ने मुझे इतना लाचार बना दिया
अब तो निवाला भी खुद से किया नहीं जाता
फिर भी ये मेरे दु:ख का कारण नहीं
पीड़ा सिर्फ इतना सा है
दिखाकर आंख कहते हैं
औलाद
अपने काम से काम रखिए
क्या पता था कि ऐसा दिन भी
आएगा जब औलाद आंख दिखाएगा
डॉ मीना कुमारी परिहार
🌹🙏अग्नि शिखा मंच 🙏🌹
विषय :* बुढापा*
दिनांक:8/8/21
*****************************
दिन बीते हैं बचपन के,
बीत गयी ये मस्त जवानी
अब तक सारा जीवन बीता
वह रह गयी ,एक कहानी।
सिर के बाल सफेद हुए ,
पर ये, धूप मे नहीं पके -
सारी उमर गुजर गयी इसमें
अनुभवों को संचित करते।
लटक रहीं झुर्रियाँ चेहरे पर,
आँखे धँस गयी कोटर में -
पर, इससे क्या कम पडता है!
अनुभव भरे इस जीवन में ।
अब बचा मौत का इन्तजार है!
वह भी पूर्ण होगा इक दिन ,
"राम नाम" को जप लो बन्धु-
मर जाएँगे सब एक दिन ।
अच्छा काम करो जीवन भर,
जिससे जग में नाम मिले -
मरने पर भी हर प्राणी,
तेरे यश का गान करे,,,,,,।
*************************************
स्वरचित एवं मौलिक रचना
रचनाकार-डॉ पुष्पा गुप्ता
मुजफ्फरपुर
बिहार
🙏
नमन मंच
काव्य पाठ
दिन रविवार(8/82021)
विषय ;-आया बुढापा
समय का प्रवाह चलता जाता ।
जिसके संग उम्र भी बहती जाती।
बचपन बीता आयी जवानी
चलता जीवन भाग दौड़ में
करता वहन है जिम्मेदारी
पलक झपकते समय बीतता
आ जाती जीवन की संध्या
ना होना मायूस कभी भी
है इक़ सुंदर ठौर बुढापा।
अपनाना इसको भी दिल से
संग जुड़ी इससे हैं यादे
बड़े सुहाने अनुभव की
खुश रहना सबको खुश रखना।
यही नियामत समझो रब
की।।
निहारिका झा 🙏🏼🙏🏼🌹🌹
खैरागढ़ राज.(छ ग)
विजात छंद
बुढ़ापे में
झुकी नजरें नयन छलके।
दुखी मन है वदन झलके।।
बुढ़ापे में बहुत दुर्दिन ।
नहीं कटता समय हर दिन।।
जिसे पाला वही छोड़ा ।
वही नाता सभी तोड़ा ।।
किसे मानूं अजी अपने।
सभी अपने हुए सपने ।।
डॉ प्रतिभा पराशर
हाजीपुर बिहार
अग्निशिखा मंच
ऑनलाइन कवि सम्मेलन
मां शारदे के चरणों में वंदन अर्पित करती हूं 🙏
समस्त मनीषियों को और कार्यक्रम की अध्यक्षा महोदया को सादर अभिवादन करती हूं 🙏
आज का विषय -- आया बुढ़ापा
यह सोच कर
क्यों तेरा दिल भर आया है
बीता बचपन और जवानी
अब बुढ़ापा आया है
यह तो सब पड़ाव है
जीवन सफर के
हर साल एक द्वार है
जीवन नगर के
लक्ष्य के पीछे भागते भागते
जवानी से प्रौढ़ावस्था में आ गए
जिम्मेदारी निभाते निभाते
स्याह वालों में उजाले छा गए
कर लिया सब काम ही
जो जिम्मेदारी बन सामने खड़े थे
सबके मन की कर लिए
जो भी छोटे बड़े थे
अब बुढ़ापे में
है नहीं कोई फिकर
कर ले अपने मन की तू
अब जी ले तू जी भर कर
सोचना ना संध्या है ये
उठ नया संकल्प कर
मन तेरा अपराजिता है
अब तन का भी कायाकल्प कर
खोलकर के पंख अपने
छू ले तू विस्तृत वितान
सृजन कर नव गीत फिर से
फिर छेड़ दे तू मन की तान
उम्र के इस दौर में भी
छू ले तू नभ के चांद तारे
तब तलक तू जीतता है
जब तक तेरा मन न हारे
उठ नया संकल्प कर
उठ नया संकल्प कर
स्वरचित कविता
नीलम पाण्डेय
गोरखपुर उत्तर प्रदेश
बुढ़ापा
उम्र का वो पड़ाव ,
जाने कब चुपके से दस्तक देता है ,
जो बुढ़ापा कहलाता है ,
जिंदगी की उलझन ,
को सुलझाने में
समय फिसल जाता है ,
हाथ लड़खड़ाने लगे ,
पावं डगमगाने लगे ,
आईना समझाने लगा ,
बालों की सफेदी ,
चेहरे की झुर्रिया दिखाने लगा |
कमजोर निगाहें ,क्षीण होती हड्डियाँ
पराधीन बनाने लगी ,
जो आते थे औरों के काम ,
स्वयं के लिए मोहताज होने लगे ,
अपनों के लिये बने बोझ ,
आँखों में उनके खटकने लगे ,
दो वक्त की रोटी के लिए ,
अपने ही आंख दिखाने लगे ,
कैसा ये समय आया
बृद्धा आश्रम का रास्ता दिखने लगे ,
बनकर अभिशाप ,हाय ये बुढ़ापा ,
जिंदगी पर कहर ढाने लगा |
स्मिता धिरासरिया ,बरपेटा रोड
आया बुढ़ापा
कमर है मेरी झुकी हुई ये,
फिर भी काम मैं करती हूँ।
सब्जियों को बेच-बेचकर,
अपना यह पेट मैं भरती हूँ।
अपना दूध पिला पिलाकर,
जिनको है मैंने बड़ा किया।
निवाला निज मुंह का देकर,
जिनको है मैंने खड़ा किया।
आया बुढ़ापा आज यह तो
मैं भार बनकर जीती हूँ।
अमृत के बदले में विष की,
प्याली आज मैं पीती हूँ।
कलयुग की महिमा कैसी,
मात-पिता ही अब भार है।
जिसके दो दो बेटे वे भी,
बेबसी में जार-जार है।
मात-पिता दस को है पाले,
एक पेट नहीं पलता है।
जिनको दी जीवन-ज्योति,
उनको ही वह खलता है।
डा. साधना तोमर
बड़ौत (बागपत)
उत्तर प्रदेश
*बढ़ती उम्र की एेसी की तैसी... !*👍
घर चाहे कैसा भी हो..
उसमें खुशीया का एक कोना हो .
खुलकर हंसने की जगह हो कभी न रोना हो
फिर जिन्दगी गुजरेगी वैसी..
बढ़ती उम्र कि एसि कि तैसी।
सूरज कितना भी दूर हो..
रोशनी को घर आने का रास्ता देना..
कभी कभी छत पर चढ़ जाना.
आस पास ताक झाक भी कर लेना..
शायद फिर दिख जाये कोई उसके जैसी
बढ़ती उम्र कि एसी कि तैसी।
हो सके तो हाथ बढ़ा कर..
चाँद को छूने की कोशिश करना
चांदनी को भी लूटने कि कोशिश भी करना,,
अंधेरे में भी चमक रहेगी वैसि कि वैसी,,,
बढ़ती उम्र की एसी कि तैसी।
अगर हो सके तो लोगों से मिलना जुलना..
घर के पास पड़ोस में ज़रूर आना जाना रखना..
खुशीया रहेंगी आस पासहर कोई अपना हो जाये
कुछ बाते करना एसी,बढ़ती उम्र की एसि कि तैसी।
भीग लेना बारिश में कभी कभी ..
उछल कूद भी कर लेना..
हो सके तो बच्चों के साथमिल
एक कागज़ की किश्ती चला देना..
याद आ जायेगी बचपन जैसी।
बढ़ती उम्र कि,,,
कभी हो फुरसत,आसमान भी साफ हो..
तो एक पतंग आसमान में चढ़ालेना..
हो सके तो एक छोटा सा पेंच भी लड़ालेना
काटे याकट जाय एक आवाज लगा देना दैसी
बढ़ती उम्र कि एसी कि तैसी।..
घर के सामने रखना एक पेड़..
उस पर आ बैठे पक्षि अनैक
कोयल कि कूंहू को सुनना..जो लगे गीत जैसी
बढ़ती उम्र की एसी कि तैसी।
चाहे जिधर से गुज़रिये
मीठी सी हलचल मचा दिजिये,
उम्र का हरेक दौर मज़ेदार है
अपनी उम्र का मज़ा लिजिये.
ज़िंदा दिल रहिए जनाब,
ये चेहरे पे उदासी कैसी
वक्त तो बीत ही रहा है,
*उम्र की एेसी की तैसी.. !*😀😃
*बूढापा आया*
अंगडाई लेते उठी
हाथ मूँह धोकर
आइने में चेहरा देखी
होश उड गया मेरा
सिर पर इधर -उधर
एक -एक चांदी के
बाल चमकने लगे
तो मेरा चेहरा उतरा
अरे ..बूढापा आया रे
मैं हो गयी बूढी रे
बूढापा एक नया
वसंत लाया शुरु
एक नयी उम्मीद
मैं क्यों उदास हूँ?
यह मेरा दूसरा इन्निंग्स
मुझे खेलना है जोश से
अऊट होने का डर नहीं
सिर्फ उमंग से स्वीकारना
बूढापा आया रे
नया वसंत लाया रे
उमंग -उम्मीद से
खेलना है इसे
दूसरा इन्निंग्स मेरा
यह देन इश्वर तेरा
मुझे स्वीकृत है
यौयन से बूढापा
मुझे मंजूर है।
डाॅ. सरोजा मेटी लोडाय।
*#अग्निशिखा मंच*🌹🙏🌹
दिन रविवार
दिनांक 8/8/2021
विषय " आया बुढापा "
कोई बात नही जो आया बुढ़ापा , तो
हम तब भी मस्त थे, हम अब भी मस्त हैं!
जिया जीभर गर बचपन और जवानी
फिर, भला! बुढ़ापे से क्यूं अनगिन प्रश्न है?
हां चलता हूं अब जरूर, धीरे- धीरे थोड़ा
मगर अब भी मैं लड़खड़ाता नही हूं!
हां, पहले जैसा अब जोर नही है पैरों में
मगर चलने से मैं, अब भी घबराता नही हूं!
जीवन चक्र है , यह तो यूं ही चलता रहेगा
जीभर जिया जैसे शैशव, बाल्य और जवानी!
स्वीकर करूँगा वैसे ही हंसकर अपना बुढ़ापा
क्यों सोचूं कि, बुढ़ापाअब बुढ़ापा नही.. है परेशानी!
*मीना गोपाल त्रिपाठी*
*मध्यप्रदेश*
आया बुढ़ापा
उपरोक्त शीर्षक पर एक रचना
ये भी जिंदगी का एक,
एक अनचाहा पड़ाव है।
तमाम सारी धूप के बाद,
लगता है यहां कुछ छांव है।
जिंदगी की भाग दौड़ में,
पता ही नहीं चला,,
वक्त का पहिया कब ,
आगे निकल गया।
बचपन कब हाथो से,
उड़ गया,।
फिर स्कूल शिक्षा,
शादी, ब्याह, बच्चे,
कामकाज,रोजगार,
और अा पहुंचे यहां,
एसा नहीं कि इस पड़ाव पर,
हम ऐसे ही आ गए,
जवानी हम पर भी आई थी।
हमने भी कई यो,,की निंदे उड़ाई थी,
हमारे भी गली मोहल्ले में चर्चे थे।
हम भी किसी की नजरो में रहते थे।
परंतु यहां सभी को आना है,
इस उम्र में कुछ अनुभवों की,
पोटली हमारे साथ है।
जो हमे हरदम बलिष्ठ बनाए रखती है।
इसीलिए ,दुनिया,
हमे बूढ़ा नहीं, वरिष्ठ कहती हे।
जब भी ये उम्र साठ की आती है।
साथ में ठा ट, बाट भी लाती है।
बेटे, बहू, दामाद, सभी अदब करते है।
यही पर जिंदगी का सार हैं,
गुजरा वक्त चुकाया उधार है।
हा कुछ बूढ़ी हड्डियां चरमर करती है।
हम भी कहा इनकी परवाह करते है।
प्रातः उठते है प्राणायाम करते है।
चलो कुछ समय इस पड़ाव पर ठहरते है
कुछ समय इस पड़ाव पर ठहरते है।
🙏 श्रीवल्लभ अम्बर🙏
63- आया बुढापा
धीरे धीरे से तुम आये, हौले हौले से मुस्काये।
संकेत दिया पग पग पर, मन मूढ़ समझ न पाए।
कहते जब मुझसे लोग सभी,तुम अब बूढ़े हो रहे हो।
अनदेखी मैं करता रहा,अपना प्रिय शब्द रटता रहा।
अभी तो मैं जवान हूँ, कह मन को भ्रम में रखता रहा।
व्यायाम और कसरत करके कोशिश मैं करता रहा।
तुमने तो संकेत दिया, हड्डियों में मेरे आकर के।
क्षीण वे होती रहीं, कठिन परिश्रम हो न सके।
कैल्शियम की कमी बता, मन को अपने फुसलाये।
संकेत दिया-------
तुमने तो संकेत दिया, नेत्रों में मेरे बस कर के।
गीध सी तीक्ष्ण नेत्रों को, प्रभाव से निज धूमिल करके।
त्वचा झुर्रीदार हो गई धूप का असर कह मन भरमाये।
कहाँ गया वो अनुपम सौंदर्य ये बात समझ में न आये।
तुमने तो संकेत दिया , दांतो में मेरी घुस कर के।
तुड़वाने पड़े दाँत कई,बोलता मुँह पिचका कर के।
टूटे दांतों की महिमा से मुँह को पोपला रूप दिए।
संकेत------
संकेत दर संकेत देते रहे, अब कुछ समझने लगा।
जब वाणी कंपित नेत्र धूमिल,चलने में असमर्थ हुआ।
स्मृति भी कुछ क्षीण हुई, ये मन कुछ चंचल से हुआ।
जीवन की सांध्य बेला आई,परिवर्तन स्वीकार किया।
देहयष्टि तो क्षीण किया, कामनाओं का विस्तार किया।
रिश्ते नातों की परिभाषा ने,भावनाओं को नया प्रवाह दिया।
घेरे बैठे रहें सभी, मन में सदा भाव यही आये।
संकेत----
सह न सके रूठना , न ही अनदेखा करना किसी का।
चाह नहीं है धन दौलत की, न ही चाह है यौवन का।
बच्चे साथ में रहे हमारे, है चाह यही इस बूढ़े मन का।
बच्चे बोलें प्यार के दो बोल,चाह यही इस अतृप्त मन का।
हाथ में आ गई लाठी, बिस्तर घर के कोने में लगा।
जहाँ इतर की खुशबू आती थी,अब औषधिगन्ध में बदल गया।
खाँसी का जब आये ठसका, हे प्रभु उठा लो भाव आये।
संकेत------
स्नेहलता पाण्डेय'स्नेह'
8/7/21
"आया बुढ़ापा"
द्रोपती साहू "सरसिज"महासमुन्द, छत्तीसगढ़
शीर्षक: "आया बुढ़ापा"
विधा-कविता (तुकांत)
*****
गई जवानी आया बुढ़ापा,
ले लिया अपने आगोश में।
गुज़र गई उमर इनकी भले,
अनुभव अपार है जोश में।।
जीवन की राहें लंबी बड़ी,
जिन्होंने तय किया अबाध।
अब ना इन्हें दुत्कारा जाय,
इनमें ज्ञान गहरा है अगाध।।
नहाते हैं ऐसी ज्ञान गंगा में,
पीढ़ी नई करता मन उजला।
आधार स्तम्भ ये ही हमारे,
रौशनी बिखेरे दीपक जला।।
*******
पिन-493445
Email: dropdisahu75@gmail.com
एक गीत
+++++++
अपने पंख समेटो भाई
नहीं रही अब वह तरुणाई।।
छोटे से आंगन में घर में
बैठ निहारो मूरत उनकी
बाल गोविंदा जो कुछ करता रखो ध्यान में सूरत उसकी जग से और न कुछ पाएगा खर्चे को तू आना पाई ।।
अपने पंख समेटो भाई।।
कल के मित्र नहीं हैं तेरे
पांव न कर पाएंगे फेरे।।
अभिलाषा को भरनो बाहों में तोड़ स्वयं स्व पर के घेरे
अर्पिता कर दे उस मालिक को
अपने अंदर की तन्हाई
अपने पंख समेटो भाई।।
प्रात शाम की बीती बेला
आने को है रात अंधेरी
जहां मिले दर बिछा ले अपना बिस्तर और न कर तूँ देरी बहुत हो गया उसे संभालो सुख-दुख की जो किया कमाई।
अपने पंख समेटो भाई।।
+++++++डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेद्वी शैलेश वाराणसी
अग्नि शिखा मंच को नमन आभार अभिनंदन
विषय -बुढ़ापा
जीवन को ख़ुशरंग बनाना है
ख़ुशियाँ बाँट कर जीना है
साथ मिलकर साथ चलना
उत्साह ,उमंग, जोश जीवनक्रम हैं
खुद करके देखो एहसास जगाना है
कंधे मज़बूत बना राह नई दिखाना है
जीवन चार पहर की यही कहानी है
बचपन जवानी ,बुढ़ापा और मृत्यु
बचपन की सुनहरी यादों में
खुद को ही जीना है। ,
सीख नही सम्बल दे
अपनो का साथ निभाना है
जवानी की पतंग ज़ोर लगा उड़ाना है ।
कर्मक्षेत्र उत्साह जगा परिजन संग ,
साथ निभा माता पिता ,
वसुधेव कुटुम्ब साथ निभाना है ।
बुढ़ापा बचपन का एहसास है
जीने मरने की रीत यही है
सतरंगी सपनो संग जीना है
मृत्यु को आसान बनाना है
क्या लेकर आये क्या लेकर जाना है
जग से हँसते हँसते जाना है
रोते रोते इस दुनिया में आना है
जग की सुंदर रीत निभाना है
अनिता शरद झा अग्नि शिखा मंच को नमन आभार अभिनंदन
विषय -बुढ़ापा
जीवन को ख़ुशरंग बनाना है
ख़ुशियाँ बाँट कर जीना है
साथ मिलकर साथ चलना
उत्साह ,उमंग, जोश जीवनक्रम हैं
खुद करके देखो एहसास जगाना है
कंधे मज़बूत बना राह नई दिखाना है
जीवन चार पहर की यही कहानी है
बचपन जवानी ,बुढ़ापा और मृत्यु
बचपन की सुनहरी यादों में
खुद को ही जीना है। ,
सीख नही सम्बल दे
अपनो का साथ निभाना है
जवानी की पतंग ज़ोर लगा उड़ाना है ।
कर्मक्षेत्र उत्साह जगा परिजन संग ,
साथ निभा माता पिता ,
वसुधेव कुटुम्ब साथ निभाना है ।
बुढ़ापा बचपन का एहसास है
जीने मरने की रीत यही है
सतरंगी सपनो संग जीना है
मृत्यु को आसान बनाना है
क्या लेकर आये क्या लेकर जाना है
जग से हँसते हँसते जाना है
रोते रोते इस दुनिया में आना है
जग की सुंदर रीत निभाना है
अनिता शरद झा
आया बुढ़ापा
बचपन तेरा जाना फिर लौटकर ना आना
वो लापरवाही बेपरवाही थी बचपन का खजाना,
ना कोई जिम्मेदारी ना किसी बात की फिक्र
बस अपने मन के मालिक बन रहते थे हरदम ।
और फिर आई जवानी तो जिम्मेदारी का अहसास हुआ
परिवार बड़ा जब अपना तो हर रिश्ते का भी ज्ञान हुआ,
निकल गई जवानी भी फर्ज़ अपना निभाने में
रात दिन की मेहनत से जीवन की खुशियां पाने में ।
अब आया बुढ़ापा तो यही अहसास कराता है
भूल ना जाना तुशंनं अंतिम साँस तक अपना नाता है,
ना जाऊंगा छोड़कर चाहे जितना जोर लगा ले
छुपेगी ना झुर्रियां चेहरे की, चाहे बालों में भी रंग लगा ले ।
फिर सोचा शाश्वत सत्य है--बुढ़ापा-----
ना कोई रोक पाया है, वक्त दिया है जो मालिक ने तो
कुछ ख्वाब ही पूरे करलें,
कुछ कर पाने की जो इच्छा रही अधूरी
चलो आज कुछ मन की कर ले,
अपने अंदर के हुनर को जो बाहर
किसी कारण ना आ पाया,
चलो कुछ गीत नज्में लिख लें
कुछ वक्त योगा भी कर लें,
बुढ़ापे का प्रभाव ना छाए मन पर
आओ कुछ हँसी ठिठोली कर लें,
ना जाने कब डोर साँस की टूट जाए
कुछ वक्त प्रभु में चरणों में ध्यान लगा कर 'रानी,
अपनी साँसो की पूंजी को सफल भी कर लें
ईश्वर से बस यही प्रार्थना हाथ-पाँव
सलामत रखना तू
किसी का मोहताज न बनने देना
उससे पहले अपने चरणों में
जगह दे देना तू।
रानी नारंग
शीर्षक -बुढ़ापा आया
1. बुढ़ापा आए है एक बार ,
करना देखभाल संभाल ,
तेरे सारे जीवन भर का भार ,
अब तो नई जीवन धार ,
बुढ़ापा आए है एक बार , ,,,,,
कभी तो होगी आंखें चार ,
करना सोच समझके विचार ,
दिल तो बच्चे जैसा यार ,
जुड़े हैं सब के सब से दिल के तार ,
बुढ़ापा आया है ,,,,,,,
रखना धीमे-धीमे रफ्तार ,
लगेगा मुश्किल से बेड़ा पार ,
फूल सन्ग मिलेंग ये चुभते खार ,
बुढ़ापा आया ,,,,,,,,
चाहते उम्र से जाना पार ,
सजे हो छप्पन भोग एक साथ ,
तब टपकाना नहीं कभी भी लार ,
मन को बस में रख कर इस बार ,
चश्मा लाठी को तो संभाल , पढ़ेंगे व्यंग बाण प्रहार .
बुढ़ापा आया है,,,,,,
🙏🌹अग्नि शिखा मंच🌹🙏
🙏🌹जय अम्बे🌹8/8/21🌹🙏
🙏🌹गीतः *स्थिरता पान है बुढापा में, मन में* 🌹🙏
मन शांत कहां रख पाते हैं ।
बुढापा में भी स्थिर कहां हो पाते।।
विचार मनमें रहे उभरते ।
रोका कितना रोक न पाए ।।
उमड़ घुमडते रहते मनमें ।
उनको कभी टोक ना पाए ।।
हो जाता क्रोध कभी मन में।
मन तरंग से भर जाते हैं।।
चिंता से घबराते रहते।
मन स्थिर नहीं कर पाते हैं।।
बुढ़ापा में स्थिर नहीं रह पाते।।
सुख में खुश हो जाते हैं हम।
पीडा में अश्रु बहाते हैं ।।
अनगिनत भाव जागे मन में ।
दिशा शून्य हम हो जाते है।।
उदासीन बन जाते मन से।
स्पंदनशील हमें पाते है।।
कल्पना में रंग भर देते।
मन स्थिर नहीं कर पाते है।।
बुढ़ापे में स्थिरता पाना है।।
चाहते है स्थिरता मन की ।
पर चंचल मन भाग रहा हैं।
लगाता हूं मन हरि भजन में ।
शांति का अनुभव हो रहा हैं ।।
चेतना भरना जो सिखाते ।
अंतर से सुख हम पाते हैं ।।
एकाग्रचित्त हो जाते है।
मन स्थिर तभी कर पाते हैं ।।
हरि स्मरण से बुढ़ापा में,
हम स्थिरता पाते है।।
🙏🌹स्वरचित रचना🌹🙏
🙏🌹पद्माक्षि शुक्ल🌹🙏
अग्निशिखा मंच ( काव्य गोष्ठी)
8/8/2021 रविवार
विषय-आया बुढापा
हर बात से अंजान
भोला सा नादान
जैसे पाक-पवित्र गीता
खेल-कूद में
बचपन बीता
लांघ बचपन की देहरी
बेख़बर, बेपरवाह
गाती- झूमती
आयी मदमस्त जवानी
संग मौजो के
जैसे बहती रवानी
वक़्त के साथ
बन गयी जवानी
एक भूली कहानी
अब दिखने लगी
बुढ़ापे की निशानी
कानों के पास आकर
दो-चार सफ़ेद बाल
जैसे कहने लगे
सावधान
छोड़ कर काले धंधे
करले नेक कर्म तू बन्दे
आँखों पर चढ़ा चश्मा
बोला बहुत देख ली
दुनियाँ की रौनक
अब करले हरि दर्शन
टूटते दांत चिढ़ाते है
अब कैसे खाओगे
काजू-बादाम
डाल लो आदत
दाल-दलिये खाने की
ढल रही है
जीवन की शाम
ले ले बन्दे
राम का नाम
हिलते-डुलते तन को
अब लकड़ी का सहारा
छूट रहा है
अपने आप से
अपना ही आपा
देखो आके
जो जाये ना कभी
वो आया बुढापा
तारा"प्रीत"
जोधपुर (राज०)
बुढ़ापा का आगमन
-----------------
अधिकांश का इस्तेमाल होता है
बुढापा शब्द, बस हो गई
मौज मस्ती, घूमना फिरना
बस चुप बैठो ,अपनी सत्ता छोड़ो
भजन भाव करो,
खानपान में ज्यादा चूजी ना बनो
सादा खाओ, शांत रहो।
बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन होता है।
मैं कहते हूँ यह लाइफ की
सेकंड इनिंग, दूसरी पारी है
बच्चों जैसी जिद ,
मुझे यह सब पता है
मैंने भी दुनिया देखी है
यह बाल धूप में स
फेद नहीं किए हैं मैंने,
पर मैं कहती हूं
दिल से जवान रहें
यौ बनाए रखें
खुद को अपडेट रखें
बदलाव लाने के लिए तैयार रहें।
बालों की सफेदी यह नहीं बताती
मैं सभी शौक किनारे कर दूं
भागवत भजन हर उम्र में जरूरी है
पर बीच पर घूमना
होटलों में जाना
बच्चों संग नाचे गाएं
कुछ उनकी माने
कुछ अपनी मनवाए
कुछ से सीखे
कुछ उन्हें सिखाएं
धीरे-धीरे नाती पोतों को
संस्कार भी देने हैं
पर उनसे जुंबा भी सीखना है,
बच्चे कहें दादी मेरी
सिर्फ 16 साल की है
56 वर्ष के अनुभव के साथ।
दोस्तों संग घिरे रहे
हंसी ठहाकों की गूंज हो
मोबाइल लैपटॉप से
दोस्ती हो अपनी
ऐप कई डाउनलोड हो
मोबाइल गेम से ना
खटपट हो अपनी
चश्मा की जगह
कांटेक्ट लेंस की बात करें हम।
जिंदगी मदमस्त रहे
एक दूजे को जो वक्त ना दे
पाए प्यार से संग झूले पर बैठ
आंखों में देखें एक दूजे के
कहीं यार यह वक्त थम जाए
प्यार दे प्यार पाए
जो अटल सत्य है कभी नहीं बदलेगा
जोश में मस्त होकर जियो
बुढ़ापा तो आना है आएगा
लेकर ही हमें जाएगा
पर जब है यहां खुलकर जियें
मदमस्त होकर जियें।
धन्यवाद
अंशु तिवारी पटना
रविवार*****८/८/२१
विधा *****कविता
विषय** #***बूढ़ापा****#
सारा बचपनही खेल में गवाया ।
यौवन हंसी मस्तियों में बिताया ।।
आराम मिलेगा अब तन मन को ।
देखो थका हारा रे बुढ़ापा आया ।।१
बचपन खेल कूद का जमाना है ।
यौवन प्यारका मौसम सुहाना है।।
जीवन भर के सुख दुख से भरा ।
खट्टे मीठे अनुभव का खजाना है ।।२
बुढ़ापा तो है लौटा हुआ बचपन ।
बच्चों सी हरकतों पर लगे बंधन ।।
सब खयाल रखते घर में इनका ।
सीख ज्ञानका महकता वृक्ष चंदन।।३
जवानी चंचल गैर जिम्मेदार है ।
बुढ़ापा होशियार खबरदार है ।।
गलत काम करने नदे जवानीको ।
बुढ़ापा रूपका रक्षक पहरेदार है ।।४
बुढ़ापा हर किसीका सुखमें गुजरे ।
दुख दुविधा के न कभी हों पहरे ।।
कोई आस नहीं बस आते जाते ।
हाल पूछने उनका कोई रुके ठहरे ।।५
प्रा रविशंकर कोलते
नागपुर
अंतिम पड़ाव बुढ़ापा
जीवन का कटु सत्य है बुढ़ापा
एक ऐसा दौर है ये जिंदगी का,
रोके नहीं रुकता ये पल इनका
सिर्फ अतीत के पन्नों के सहारे,
कटने वाला अनोखा दौर है
अनुभव से परिपूर्ण समेटे हुए ये,
कई सेहत के खजाने भरे हुए ये
उम्र की चरम सीमा नहीं मानते ये,
हर कार्य किये बिना नहीं मानते ये
सफ़ेद बाल व झुर्रियों को ये चिढ़ाते,
अपनी उम्र को ये कभी नहीं छुपाते
ये दौर में भी अपनों का सम्बल,
बन अपनों को हौसला देते सदा
इस दौर मे भी आत्मनिर्भर बन ये,
स्वयं बलवान बने रहते सदा ये।
हेमा जैन (स्वरचित )
नमस्ते मैं ऐश्वर्या कापरे जोशी
अग्निशिखा परिवार को मेरा नमन प्रतियोगिता हेतु मैं मेरी रचना प्रस्तुत करती हूं।
विषय- आया बुढ़ापा।
आया बुढ़ापा
अब आंखें भी धुंधली हो गई
पैर भी लड़खड़ाने लगे
सुनने को भी कम आ रहा है,
लगता है शायद बुढ़ापा
आया मेरा।
अब बच्चे भी कहने लगे
बाबूजी यह गलत है,यह सही हैे
क्या बोलता हूं, क्या करता हूं,
यह भी ध्यान में नहीं रहता,
लगता है शायद बुढ़ापा
आया है मेरा।
अब बच्चों को ही
बोझ मेरा लग रहा है,
मैं कुछ बोलू तो मुझे ही
नासमझ कहकर बोल रहे हैं,
लगता है शायद सच में
बुढ़ापा आया मेरा।
ढेर सारी बीमारियों ने
कब्जा किया है,
अब मन भी पुराने अलमारी की तरफ बढ़ रहा है,
शायद बुढ़ापा आया मेरा।
बीते हुए दिन अब
याद करकर जी रहा हूं,
बीते हुए लम्हों में खुशियां ढूंढने लगा हू, यही मनमुटाव
कर के जी रहा हू,
लगता है शायद आज
सच में, मैं बूढ़ा हो गया हू।
धन्यवाद 🙏🌹
पुणे
शीर्षक बुढ़ापा
आज मुझे अवकाश मिला है ,
जीवन का इतिहास दिखा है,
बच्चे पूछने आए पिताजी क्या लाए?
कुछ कड़वे कुछ मीठे अनुभव
बिना असंभव कुछ नहीं संभव ,
दुनिया की घनी तेज धूप हैं ,
यह जीवन के ही अनुरूप हैl
एक घड़ी एक मिला है छाता
,आंखें मूंद चला नहीं जाता
कह कर दिल भर आए
बच्चे पूछने आए पिताजी क्या लाए।
आया बरसों बाद बुढ़ापा,
दुख सुख का हर राग अलापा
35 सालों तक गाया है ,
सच कम झूठ अधिक पाया है। कौन है अपना कौन पराया
,उसका ध्यान तनिक नहीं आया,
कह कर दिल भर आए ।
बच्चे पूछने आए पिताजी क्या लाए?
रुपया पैसा और पेंशन ,
नहीं है मुझको बिल्कुल टेंशन,
दो बेटे एक बेटी ब्याही ,
पथ पर चला अकेला राही ,
जब तक जीना साथ रहूंगा,
कुछ भी पुत्रों नहीं कहूंगा,
कैसे दिन फिर आए,
बच्चे पूछने आए पिताजी क्या लाए?।
रवि शशि से दो रूप हमारे
जमा खर्च सब नाम तुम्हारे,
अपनी मां का ख्याल भी रखना,
रोना नहीं सदा तुम हंसना
,अब यह घर बार तुम्हारा ,
बेटे बहुओं को पुचकारा ,
पास बैठ समझाएं,
बच्चे पूछने आए पिताजी क्या लाए।
बहू का आगमन और सोचना🤔
सारा दिन बकझक करते हो ,
सारा दिन बकझक करते ,,हौ
ना सोते ना सोने देते हो ।
और खटिया पर पड़े रात रात भर
तुम तो खांसते रहते हो।
बुढ़िया चकर मकर करती है,
बस दिन भर बैठी चरती है,
बुड्ढे तू कुछ काम किया कर,
फटे पुराने वस्त्र सिया कर ,
पुत्र और वधू झुंझलाए,
बच्चे पूछने आए पिताजी क्या लाए, बच्चे पूछने आए पिताजी क्या लाए?
धन्यwad
सुषमा शुक्ला🤔
अग्नि शिखा मंच
। आया बुढापा ।
कैसा आया बुढापा,
कमर झुक गई है।
असर दिखाये बुढापा,
सफेदी सर आ गई है।।
हाथ पैर सुस्त हो गये,
झुर्रियां आ गयी है।
दांत सब गिर गये,
पोपला मुह हो गया है।।
बच्चे परदेश चले गये,
हम अकेले हो गये है।
संगी साथी सब छूट गये,
बुढापा आ गया है।।
दुनिया बहुत जालिम है,
बुढापा की कद्र न जाने है।
जायदाद सब छूट गयी,
सब बाट में चली गई है।।
बुढापा ठीक करना है,
समझकर काम करना है।
अपना बुढापा सुरक्षित रहे,
कुछ रूपये बचा लेना है।।
स्वरचित,
रामेश्वर प्रसाद गुप्ता ।
आदरणीय मंच मंच को नमन
मेरी कविता का शीर्षक है आया बुढ़ापा
उम्र ढल गई याद जब आई
अतीत की अनुभव परछाईं।
प्राण क्षण भंगुर है अपना।
बचपन लगता है इक सपना।।
कभी रुलाया कभी हँसाया।
दुःखी हुआ कभी भरमाया।
निस्वार्थ प्रेम निर्मल काया।
लगे दुनिया बस मोह माया।।
ये जीवन क्या क्या न सिखाए।
जीवन संध्या अभी बुलाए।
पाप-पुण्य सब यहीं कमाए।
बिन जाेश के तू लडखडाए।।
हर उम्र की निज खूबी होती।
जवानी ही जोशीली होती।
बुढ़ापा चिंतन-मनन होता।
यहाँ समग्र मूल्यांकन होता।।
वैष्णो खत्री वेदिका
जबलपुर मध्य प्रदेश
$$ बुढ़ापा $$
ना जाने क्यों हम
मानते हैं बुढ़ापे को अच्छा नही
कटता नही आसानी से बुढ़ापा
जिंदादिली से जिओ तो
खूबसूरत होता है ये बुढ़ापा
बच्चों को बिना हस्तक्षेप किये भी
सिखा सकते है कई बाते
आपके कर्मो का ही तो अनुसरण
करती है अगली पीढ़ी
मेरी दादीजी और पिताजी
अस्सी पार भी रहे नही कभी आश्रित
ना ही किसी पर झाड़ा रोब
दुसरों की खुशी मे ही
ढूंढ लेते थे अपनी खुशी
मदद दुसरों की करते रहे हमेशा
सालों बाद भी करते है सभी उन्हे याद
दादीजी की बहन की तो
बात ही निराली
शतक पार थे पर
कर लेते थे अपना काम
आवश्यकताएँ हो कम
नही रहो दूसरों पर निर्भर
ना किसी पर करो रोकटोक
बड़े आराम से गुजरेगा बुढ़ापा
👏👏👏👏👏👏👏
चन्दा डांगी रेकी ग्रैंडमास्टर
रामटेकरी मंदसौर मध्यप्रदेश
वीना अचतानी,
अग्नि शिखा मंच को नमन
विषय **बुढ़ापा*** कविता* *प्रश्न-चिन्ह ****
वह बूढ़ी औरत
जिसके चेहरे पर
वक्त अपने कई
निशान छोड़ गया
जिसके कमरे की
दहलीज़ पर
बना दी गई है
जवानी और बुढ़ापे
के बीच सरहदें
सुनाना चाहती है
अपने मन की
सारी व्यथाऐं वेदनाऐं
जो है अब तक
अनकही अनसुनी
दिखाना चाहती है
खुशियों के पीछे
अपने दर्द को
अपनी अधूरी
इच्छाओं को
अपमान के विषैले
घूँट की धीमी
सिसकियों को
दिखाना चाहती है
अपने अदृश्य आँसू
काश:
वो दिखा सकती
अपने मन का
अथाह प्रेम
जिसे समझा
नहीं गया
पर उसकी
उदासीन आवाज़
भीतर ही घुट जाती है
और उसकी खामोशी
बन जाती हैं एक
पर्श्न-चिन्ह ।।।।।
स्वरचित मौलिक
वीना अचतानी
जोधपुर ।।।।।
क्रम संख्या 17 विजयेन्द्र मोहन
बोकारो (झारखंड)
आज का विषय *बुढ़ापा*
बचपन से जवानी के आने के बाद
बुढ़ापा में पर्दापण किए हमने।
खट्टे - मीठे कुछ अनुभव है
जो हर मोड़ पर दिल में बसे हैं।
झुरियों की कुछ कहानियां हैं
जो दिल पर याद बन कर छाई है।
याददाश्त कमजोर हुई है
लेकिन बीते लम्हों की यादें ताजा है।
धूप -छांव सा जीवन -पथ है
क्या बचपन, क्या जवानी क्या बुढ़ापा।
बस गुजरते एहसासों को बांधकर रखना है
जब तक जिंदगी की आखिरी सांसे बाकी है।
मैं कभी नहीं कहते हम (बूढ़े) ओल्ड हो गए।
कहते हैं तपकर (वरिष्ठ) गोल्ड हो गए हैं।
विजयेन्द्र मोहन। बोकारो (झारखंड)
* अग्नि शिखा काव्य मंच*
*बिषय - आया बुढ़ापा *
बचपन खेल कूद में बिता ,
आया बुढ़ापा हो गया रिता !
चार दिनों की रंगीन जवानी ,
आया बुढ़ापा कर रखवाली !
जब तूंँ था गबरू जवाँन ,
तेरे चलते थे हाथ - पाँव !
खूब कमाता जी भर बाँटा ,
सब करते थे तेरा गुणगाँन !
घर हवेली जमीन जायदाद ,
बेटों ने ली आपस में बाँट !
अब तुझे से नहीं कोई काम
सबके जी का बना जंजाल ?
आँखों से अब कम दिखता है,
कानों से भी कम कम सुनता है!
थकी चाल और काँपते हाथ ?
तन- मन थक कर हुए निढ़ाल ?
अपने पास कुछ बचा रखता ?
आज ना अपनी झोली फैलाता !
अपना घर ओर अपनी कमाई ,
सदा होते जीवन में सुखदाई !
बँद मुठ्ठी होती सवा लाख की ,
खुल गई तो हो गई खाक की !
पुरखो का दिया ये गुरू मंत्र ,
सीख सदा से चलती आई !
सदा साकारात्मक सोच रखना ,
अच्छे मित्रों के संग वक्त बिताना!
मन को सदा ही जवान रखनां,
बुढ़ापा बन जायेगा खुशहाल !
सरोज दुगड़
खारुपेटिया
असम
🙏🙏🙏
जय मां शारदे
***********
अग्निशिखा मंच
**************
दिन- रविवार
दिनांक- 8/8/2021
प्रदत्त विषय -
*आया बुढ़ापा*
चली जा रही है उमर धीरे धीरे।
पल-पल ये आठों पहर धीरे-धीरे ।
बचपन गया अब जवानी भी जाए,
बुढ़ापे का होगा असर धीरे-धीरे ।
चली जा रही है उमर धीरे धीरे ।
तेरे हाथ,पांव में दम ना रहेगा
झुक जाएगी ये कमर धीरे-धीरे ।
चली जा रही है उमर धीरे धीरे।
शिथिल होंगे सारे ये अंग तुम्हारे,
मंद होगी तेरी नजर धीरे धीरे ।
चली जा रही है उमर धीरे धीरे ।
बुराई से तुम अपने मन को हटा लो,
प्रभु चरणों में तुम इसको लगा लो,
सुधर जाएगा ये जनम धीरे-धीरे ।
चली जा रही है उमर धीरे धीरे
पल पल ये आठों पहर धीरे-धीरे ।
रागिनी मित्तल
कटनी ,मध्य प्रदेश
विषय- बुढापा
दिन- बुधवार
दिनांक- २४/२/२०२१
शीर्षक - बुढापा
है प्रभु, मधुमास बसंत रैना बीती, बुढापा आ गया ।
मन की ना सुनी, दिल की ना की,
बुढापा आ गया,
बालों में चांदी छा गई, दांतो की हो गई बिदाई, देखो बुढापा आ गया,
चाल पड़ गई ढीली, घुटनों में दर्द
हाय राम क्या करू बुढापा आ गया,
कानों ने दे दिया जवाब, आंखों से दिखने लगा कम , देखो बुढापा आ गया,
दशरथ नंदन प्रभु श्री राम देखो बुढापा आ गया,
डग डग हाल है, मन बेहाल हैं।
मधुमास बसंत रैना बीती, चुपके चुपके बुढापा आ गया,---२
पोपले मुंह से बोला न जाए, पोता पोती कहानी सुनावा की ज़िद करे है, देखो बुढापा आ गया,
बहू केवे मां चाबी हमको दई दो, तुम्हे याद नी रेवे,
सारा घर जीम लेवे, टेम से कोइ नी पूछे, देखो भाई बुढापा आ गया,
छोरा छोरी बोले चकर मकर ना करो, दवा लो, सो जाओ भाई बुढापा आ गया,
बेटा बोले मां ज्यादा टोका टोकी ना करो , कमती बोलो, अपनी राम नाम की माला फेरो, देखो कैसा बुढापा आ गया।
हे प्रभु, बस तेरा ही सहारा , में करु तेरा ही सुमिरन दिन रात तेरे नाम की माला जपू -----
सियाराम राम राम सियाराम जय राम राम हरे हरे राम राम सियाराम जय जय श्री राम।
सुनीता अग्रवाल इंदौर मध्यप्रदेश स्वरचित धन्यवाद 🙏🙏
राम राम सियाराम जय श्री राम 🙏🙏🙏🙏🙏🙏
आया बुढ़ापा
दरवाजे पर दस्तक हुई
खोलकर दरवाजा देखा
सामने बुढ़ापा खड़ा था
मैंने अचकचा कर पूछा-
रे बुढ़ापा तेरा क्या काम
जो तू आ गया मेरे द्वार
कहीं और जाकर देखो
मैं तो अभी हूं जवान ।
बुढ़ापा खिलखिलाया, हंसकर बोला
साठ के दशक को पार कर लिया
अपने को अभी भी जवान समझो
देख बालों में कैसी चांदी झांक रही है
मैँ कुछ सकुचाते हुए बोली-
हां थोड़े बहुत बाल तो
उम्र के साथ हो जाते हैं सफेद
पर- पर मेरा मन अभी बूढ़ा नहीं है
तन और काया भी ठीक-ठाक है
बुढ़ापा अबकि और जोर से हंसा-
खंखारते हुए बोला- देखो,
तुम्हारे इतने बड़े पोते- पोती हैं
उनको देखकर अब मत इठलाओ
अपने तजुर्बे को बांटो,
अपना अनुभव सबको सुनाओ
अभी तक जो सीखा उसकी प्रेरणा दो
बच्चों को प्रेरक प्रसंग सुनाओ,
और हां एक बात ध्यान से सुनो
बुढ़ापा मुस्कुराते हुए बोला--
कभी बेटे बहू पर तंज मत कसो
प्यार मोहब्बत से दिन गुजारो
टोका टाकी से कोसों दूर रहो
सबको अपनी जिंदगी जीने दो
वरना वृद्धाश्रम में दिन बिताने पड़ेंगे।
अब मैं संभलते हुए बोली-
हां बुढ़ापा भैया,मैं तो भूल ही चली थी,
आपने सही राय दी।
मैं खुली छत पर खूब हंसूगी
रोज हास्ययोग करूंगी
अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखूंगी
घर को हंसी खुशी से गुलजार रखूंगी।
दया सहानुभूति के कार्य करूंगी
भगवान सुमिरन में भी मन लगाऊंगी।
इतना सुनते ही बुढ़ापा
मुस्कुराता हुआ दूर चला गया।
डा अंजुल कंसल"कनुप्रिया"
8-8-21
अग्निशिखा मंच को नमन🙏
आज का विषय *बुढ़ापा*
बालपन, जवानी,बुढापा आता है
यह तो आना ही साथ अपने वो पिडा, दर्द लाया है, जवानी का जोश,उंमग उल्हास खत्म हो गया है।।१।।
अब किसी के साथ उम्मीद कम है
बस अपनी पत्नी का साथ मिल
जाऐ यही हमारी इच्छा है
पत्नी जीवन संगिनी है ।।२।।
वहीं सुख दुख की साथी है,
कभी मत भुलना जीवन संगिनी को, अपने संस्कारों पुत्र, नाती को देना जरूरी है ।।३।।
बुढापा आया रे , चलना मुश्किल हो गया है आंखों से धंधुला दिखता है,कानो से ऊंचा सुनना है
क्या करे भैय्या यही तो बुढ़ापा है।।४।।
लाठी का सहारे चलना है
बेटा विदेश में रहता है बेटी
ससुराल में है, पत्नी के साथ देना है,क्या करें भैय्या बुढापा है।।५।।
इसलिए भैय्या जवानी में सब कुछ कर लो, बुढ़ापे में नहीं होती
तीर्थयात्रा कर लो जवानी में
ईश्वर का नामस्मरण घर में ही करना है ।।६।।
कोरोना का काल है। मंदिर बाग,बगिचे बंद है, संग साथियों का मिलना जुलना बंद है,न हो
बुढापा यही मेरी तमन्ना है।।७।।
सुरेंद्र हरडे कवि
नागपुर
दिनांक:- ०८/०८/२०२१
बुढ़ापा
बचपन जाता है, जवानी आती है,
जवानी जाती है ,बुढ़ापा आता है
जवानी के जोश में आसमान को
छू लो तुम,
प्यार करो सबसे, कर्तव्यों को न भूलो तुम
बुढ़ापे में हाथ पैर शिथिल हो जाते हैं,
उनकी सेवा करके , आशीर्वाद लेना तुम।
शक्ति क्षीण हो जाती है,
आंखें कमजोर हो जाती हैं ,
लाठी का सहारा लेना पड़ता है,
कमर भी झुक जाती है ।
,कई बीमारियां हो जाती है,
नींद भी नहीं आती है ,
हर दिन मृत्यु की ओर बढ़ते हैं ,
ग़म की बादली छा जाती हैं ।
इसीलिए जवानी के रहते अच्छे काम कर लो ,
यात्रा सुखद ,चारों धाम कर लो,
ईश्वर का भजन सुबह शाम कर लो,
वर्ना बुढ़ापे में पछताना पड़ेगा ।
श्रीमती शोभा रानी तिवारी इंदौर मध्य प्रदेश
आज का विषय है आया बुढ़ापा इसी विषय पर मेरी रचना प्रस्तुत है
*शीर्षक--बुढ़ापा*
कविता_6 बुंदेली व्यंग कविता
कोउ नइयां रे कोउ नइयां,
ई बुढ़ापे की लठिया कोउ नइयां ।
जब तक जान रही जा तन में,
खूब कमाई करी जीवन में ।
हरि नाम कबहु लियो नइयां,
बुढ़ापे की लाठिया कोई नइयां।।
जब तक दाम रहे आंटी में,
बेटा बहू पूछे हर घंटा में ।
अब दमड़ी पास बची नइयां,
सो पूछन हारो को नइयां।।
सूख के काया कांटो हो गई,
खांस खांस के नींदे खो गई,
नैनन में ज्योति बची नइयां,
अब बुढ़ापे की लठिया कोउ नइयां।।
बहु कहे बुड्ढा वृद्धाश्रम पठा दो,
जा कोठरिया किराए चढ़ा दो।
दो हजार को मिले महीना,
बुढ़ापे की लठिया कोउ नइयां।।
सात सात लड़का अकेले हम पाले,
पढ़ाई लिखाई ब्याह कर डाले,
एक बुढ़वा इनसे पलत नैंया,
बुढ़ापे की लठिया कोउ नइयां।।
रे मूरख हरि नाम को भज ले,
मन हरि चरणों में अर्पण कर ले ।
भव पार करे वो पकड़ बहियां,
बुढ़ापे की लाठिया कोउ नइयां।।
गणिका गीध अजामिल तारे,
बड़े-बड़े पापी पार उतारे ।
राज थाम ले उनकी बहियां,
बुढ़ापे की लठिया कोउ नइयां।।
डॉ सुधा चौहान राज इंदौर
डॉ सुधा चौहान राज इंदौर से अंतरराष्ट्रीय अग्निशिखा मंच पर आप सभी का स्वागत करती हूं ।
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कार्यक्रम की अध्यक्षता अलका पांडे जी, संचालन कर रहे सुरेंद्र हरड़े जी एवं शोभा रानी तिवारी जी, स्वागत गीत प्रस्तुत कर रही शोभा जी समारोह की अध्यक्षता कर रहे आदरणीय श्री राम राय जी।
आज की विशेष अतिथि आशा जाखड़ जी एवं आभार के लिए आने वाली नीरजा ठाकुर जी सहित सभी अतिथियों का मैं हृदय तल से स्वागत करती हूं वंदन करती हूं और अभिनंदन करती हूं।
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अंतर्राष्ट्रीय अग्निशिखा मंच की अध्यक्ष डॉ अलका पांडे जी को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देती हूं वह इतने अच्छे अच्छे कार्यक्रम आयोजित करती हैं इतनी सतत मेहनत करती हैं और सभी का बखूबी ध्यान रखती हैं उनकी ऊर्जा को मैं नमन करती हूं।
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उन्होंने जितने सुंदर तरीके से पटल को संचालित किया है और संभाल के रखा है वह सचमुच काबिले तारीफ है और आज के समस्त प्रतिभागी जो बुढ़ापा विषय पर अपनी रचनाएं प्रस्तुत कर रहे हैं उन्हें भी बहुत-बहुत धन्यवाद देती हूं कि उन्होंने उस सत्य की ओर अपनी रचनाओं को उन्मुख किया है जो काटते हैं हम सभी उसी नाव पर सवार हैं कोई आगे कोई पीछे ।
हम सभी को बुढ़ापे का सामना करना लेकिन अगर हम समझदारी रखेंगे तो उस उम्र में भी हम सक्रिय रहेंगे आत्मनिर्भर रहेंगे और स्वस्थ रहें सुखी बुढ़ापा बिताने की यही तीन मंत्र हैं।
आप सभी को एक बार पुनः बहुत-बहुत धन्यवाद एवं ढेर सारी शुभकामनाएं।
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मुझको तो बस कुर्सी चाहिए --- ओमप्रकाश पाण्डेय
ऐसे हो चाहे वैसे हो
छोटी हो चाहे बड़ी हो
यहाँ की हो या वहाँ की हो
इनके साथ हो या उनके साथ
कुर्सी मिले मुझे चाहे
वो हो किसी के साथ
मुझको तो बस कुर्सी चाहिए ...........1
केवल कुर्सी की चाह मुझे है
स्वप्न मुझे कुर्सी का आए
राह मेरी कुर्सी को जाए
ऐसी कुर्सी वैसी कुर्सी
चारो ओर मेरे कुर्सी
इसकी हो उसकी हो
चाहे जैसी भी कुर्सी हो
मुझको तो बस कुर्सी चाहिए ...........2
मेरे पुरखो ने देखा एक सपना
मैंने भी तो देखा सपना
सपने मे एक सुन्दर कुर्सी
कुर्सी पर मै था बैठा
चारो ओर मेरे अफसर
अफसर के उपर अफसर
एक से बढ़ कर एक अफसर
चारों ओर अफसर ही अफसर
मुझको तो बस कुर्सी चाहिए ...........3
राजनीत हो तो कुर्सी वाली
कुर्सी हो तो नोटो वाली
बिन कुर्सी के सेवा कैसे
कुर्सी नहीं तो मेवा कैसे
कुर्सी नहीं तो नोट कैसे
नोट नहीं तो फिर कुर्सी कैसी
मुझको तो बस कुर्सी चाहिए ...........4
इसकी हो या उसकी हो
ऐसी हो वा वैसी हो
पूरी हो या आधी हो
बस नोट कमाने वाली हो
नोटों से हो उसका रिश्ता
या खुद नोट छापने वाली हो
मुझको तो बस कुर्सी चाहिये ........5
( यह मेरी मौलिक रचना है ---- ओमप्रकाश पाण्डेय)